अर्थव्यवस्था
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हमारी अर्थव्यवस्था के महानतम बनने की सम्भावना क्या है?
क्या हमें मालूम है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति दस हजार अन्य लोगों की तुलना में कम से कम एक काम बेहतर तरीके से कर सकता है?
अब यदि कोई हममें से उस छिपी हुई "प्रतिभा, रुझान और योग्यता" को खौज निकाले; जिससे हमारी बढ़ी हुई क्षमता से हम बेहतर उत्पादकता हासिल कर सकें; तो क्या काम से संबंधित तनाव, कुंठा-जनित चिड़चिड़ापन, खिन्नता व उत्साहहीनता समाप्त नहीं हो जाएगी?
क्या यह चौकोर छेद में गोल खूंटी होने की हताशा का हल नहीं हो सकता; जिससे कभी का सोने की चिड़िया जैसा हमारा देश आज गुजर रहा है?
क्या हम यह समझ गये, कि इस प्रकार बिना किसी अतिरिक्त शिक्षा, पूंजी या शासन की मदद के; हम कुछ ही वर्षों के भीतर अपनी आर्थिक परिस्थिति केे उन्नयन के साथ ही साथ; भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में नहीं बदल सकते?
क्या हम कुछ समय के लिए इस बात पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं कि हमारी क्या ताकत अभी भी हमारे साथ बनी हुई है?
इस असंभव से लगते लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, क्या हमें अपनी इस छिपी हुई ताकत का लाभ नहीं उठाना चाहिए?
क्या हम देख सकते हैं कि अब तक हम अपने साथी देशवासियों के संयुक्त प्रयासों से क्या हासिल कर चुके?
इस प्रयोजन के लिए क्या हम पूर्व कोविड काल की वह तालिका देख सकते हैं, जो दर्शाती है; आकलन वर्ष 2018-19 के लिए सभी आयकर दाताओं की कुल कितनी आय थी?
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हमारी अर्थव्यवस्था को महानतम बनाने के लिये क्या किया जा सकता है?
ऊपर की सारणी में क्या हम देख सकते हैं कि 5 87 13 458 व्यक्तियों ने सामूहिक रूप से कुल आय 51,33,084 करोड़ अर्जित की.
क्या यह औसतन 874260 रूपए प्रति व्यक्ती नहीं होती है?
क्या ३१ मार्च 2018 को लगभग 587 लाख लोगों की व्यक्तिगत आय के इस स्तर के साथ हमारी जीडीपी 125.6591लाख करोड़ रुपए या कुल आय की लगभग 2.25 गुना रिपोर्ट नहीं की गई थी?
तो क्या मात्र $5 ट्रिलियन लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमारी कुल आय इसके 40% से ऊपर नहीं होनी चाहिए?
अर्थात सिर्फ $ 2 ट्रिलियन या रुपयों में 144.30 लाख करोड़ है। (शनिवार 29 फरवरी 2020 के @ 1 यूएस $ = रुपए 72..15 की दर से)
ऊपर की सारणी के तीसरे कॉलम की सबसे नीचे की नीली पंक्ति अनुसार क्या सामूहिक रूप से हमने पहले ही 51.33 लाख करोड़ रुपये की आय प्राप्त नहीं कर ली है?
$5 ट्रिलियन लक्ष्य अनुसार अब क्या हमें केवल 92.97 लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त नहीं कमाने होंगे?
क्या आज हमारे यहां लगभग 25 करोड़ परिवार नहीं हैं?
क्या उनमें से लगभग 6 करोड़ पहले से ही लगभग नौ लाख की औसत आय उत्पन्न नहीं कर रहे हैं?
क्या बाकी बचे हुये 19 करोड़ परिवार अतिरिक्त 93 लाख करोड़ की आय उत्पन्न नहीं कर सकते; जिससे हमारे औसत परिवार की कमाई 4 89 315 हो जाये?
दूसरे शब्दों में, हर किसी की सालाना आय 98 हजार हो जाये।
लेकिन क्या सिद्धांत रूप में भी इस प्रकार का समतावाद या यूटोपिया ढाई गुना प्रभाव उत्पन्न कर सकता है? क्या आपकी 5 साल की बेटी या अस्सी वर्ष की मेरी माँ; ऐसी किसी गतिविधि में भाग ले सकती हैं?
क्या इसलिए यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि हम इस स्तर पर सभी को अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते?
अब क्या सवाल नहीं उठता है कि हम आज के माहौल में किस समूह से ऐसी महत्वाकांक्षाओं की आपूर्ति की उम्मीद कर सकते हैं?
क्या हमें इस चुनौती का हल करने के लिए अन्य विकल्पों का पता नहीं लगाना चाहिये?
आइये कुछ विकल्पों पर विचार करें.
विकल्प एक: क्या हम विचार नहीं कर सकते हैं, सिर्फ 1981 और 2001 के बीच पैदा हुए व्यक्तियों का; जो अपनी भरी जवानी में हैं जो नौ लाख रुपये के वर्तमान औसत से अधिक कमाने की महत्वाकांक्षा भी रखते हों?
दूसरे विकल्प में क्या हम 1961 और 1981 के बीच पैदा हुए एैसे लोगों पर विचार नहीं कर सकते हैं जो वर्तमान में औसत से नीचे कमा रहे हों?
तीसरा विकल्प क्या हम वरिष्ठ नागरिकों को जीवन के अपने अनुभवों का लाभ उठाने और वर्तमान औसत से अधिक "कमाई करने के लिए नहीं कह सकते है?
विकल्प एक में हमारे पास लगभग 34,54,08,339 लोग हैं लेकिन उनमें से शायद केवल 70% ही 9 लाख से अधिक कमाने की कोई महत्वाकांक्षा और क्षमता रखते हों; सो क्या हम इस खंड में केवल 24,17,85,837 पर विचार कर सकते हैं?
परिदृश्य दो में हमारे पास लगभग 24, 40, 94,326 लोग हैं लेकिन उनमें से 30% शायद ही 9 लाख से अधिक कमाने की कोई महत्वाकांक्षा और क्षमता रखते हों; इसलिये क्या हम इस खंड में केवल 17, 08, 66,028 पर विचार कर सकते हैं?
परिदृश्य तीन में हमारे पास लगभग 7, 81, 46,681 बुजुर्ग हैं, लेकिन उनमें से शायद ही 30% शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम हों अतएव क्या हम इस खंड में केवल 5, 47, 02,677 पर विचार कर सकते हैं?
क्या तीनों परिदृश्यों पर विचार करने पर हमारे पास 46, 73, 54,542 व्यक्तियों की एक विशाल संभावना नहीं है?
लैकिन आकांक्षाओं के अभाव में सामाजिक हठधर्मिता, परिवारिक रूढ़िवादिता, शारीरिक या मानसिक अक्षमता, लैंगिक पूर्वाग्रह, अनिश्चितताओं की आशंकाओं और भीरुता जनित संशय इत्यादि से ग्रस्तता के कारण; उनमें से 80% अभी जहां है वहीं बने रहना पसंद नहीं करते हैं क्या?
आज के करोना के दौर में किसी भी महत्वाकांक्षी भविष्य की आशा में विश्वास करना क्या उनके लिये सम्भव भी है?
लेकिन फिर भी प्रसिद्ध 80 20 नियम के अनुसार शेष 20% को उनमें छिपे जोश, स्र्झान और संभावित योग्यता की पहचान करके क्या सशक्त व सक्षम नहीं बनाया जा सकता है?
क्या हमारे पास 9 34 70 908 या तकरीबन ९ करोड़ संभावित लोग भी नहीं हैं? जो साल में दस से पचास लाख कमाने की यात्रा शुरू कर (९ करोड़ लोग X रुपये 10 लाख = 90 ट्रिलियन या) 90 लाख करोड़ रुपये मौजूदा अर्थव्यवस्था में नहीं जोड़ सकते?
क्या सिर्फ ९ करोड़ लोग; यदि प्रति वर्ष दस लाख रुपये कमाते हैं; अर्थव्यवस्था के टपकन सिद्धांत द्वारा हमें आसानी से $ 5 ट्रिलियन इकोनॉमी तक नहीं पहुँचा देंगे?
क्या ठीक इसी जगह अपनी दिमागी कसरत मैं हमसे एक पेंच नज़र अन्दाज नहीं हो गया? जो क्या वैसा ही नहीं है जैसा पटवारी साहब सपरिवार नदी पार करते समय नदी की गहराई और अपने परिवार के सदस्यों की ऊंचाई का औसत निकालने में कर बैठे थे?
यहां क्या हम भी बड़े खर्च करने वाले समूह की ताकत को ठीक उसी तरह औसत की आड़ मे छिपाकर नजर अन्दाज नहीं कर रहे थे?
ऊपर की सारणी के पहिले कॉलम की ऊपर से बारहवी से सोलहवी पंक्ति अनुसार क्या यह 10 लाख से 50 लाख के बीच की कमाई करने वाले मात्र 56 लाख लोगों का ही वर्ग नहीं है?
जब इस वर्ग में 56 लाख लोग थे तब हमारी जीडीपी दो ट्रिलियन डॉलर थी; इसके सोलह गुना लोगों के, इस समूह में प्रवेश करने पर, हमारी जीडीपी सत्तावन (57) ट्रिलियन डॉलर पर पहुंचने से कौन रोक सकता है?
दो साल पहले तक संपूर्ण विश्व की जीडीपी 87 ट्रिलियन डॉलर ही थी.
पर 10 लाख से 50 लाख के बीच की कमाई करने वालों का वर्ग ही हमने क्यों चुना है?
क्या इससे कम आमदनी वाला वर्ग अपने यंहा पूर्णकालिक रसौईया, ड्राइवर, माली, आया या अन्य कर्मचारियों को रखकर एकाधिक सम्मानजनक रौज़गार उपलब्ध करा सकता है? और यदि यह नहीं हुआ तो फिर हम वह ढाई गुना प्रभाव कैसे उत्पन्न कर सकते हैं?
क्या हम एक साधारण परिवार के सदस्यों (मां-बाप, दो-तीन बच्चे और दादा-दादी) की संख्या; औसतन पांच मान सकते हैं?
अब फिर से बोरिंग गणित पर आते हैं हमारे नवसमृद्धता की ओर बड़ने वाले व्यक्तियों के परिजनों को मिलाने पर 93470908 * 5 = क्या हम 46 73 54 540 की मानव संख्या पर नहीं पहुंच जाते?
जो क्या हमारे देश की कुल आबादी का तकरीबन एक तिहायी नहीं है; या दूसरे शब्दों में देश के हर तीन परिवार में से एक परिवार?
जो कि बचे हुए दो परिवारों में से कुछ को सीधा रौजगार (रसौईया, ड्राइवर आदि) तो कुछ को अन्य तरह से जैसे फल, सब्जी, किराना, जेवर, वाहन इत्यादि खरीद कर; उनको पैदा करने, ढौने, बेचने, बनाने, संग्रह करने या मरम्मत इत्यादि करने के रौजगार नहीं उपलब्ध करा पायेंगे?
और हमारी सिर्फ यह नवसमृद्ध आबादी (467354540) दुनिया के समृद्धतम एक या दो या तीन नहीं बल्कि उच्चतम आय वाले पूरे चौदह देशों की सम्मिलित आबादी* (436164599) से भी अधिक नहीं हो जायेगी?